Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंः देवदास--17

देवदास ःशरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

१७
अंतिम भ


इसके बाद कब और किस भांति सारी रात बीत गयी-देवदास को इसकी खबर नही। बराबर अचेत रहे। सुबह जब ज्ञान हुआ तो कहा-‘अरे अभी कितनी दूर है? क्या इस रास्ते का अन्त नही होगा?’

गाड़ीवान ने कहा-‘अभी छः कोस है।’ देवदास ने एक गहरी सांस लेकर कहा-‘जरा जल्दी चलो, अब समय नही है।’

गाड़ीवान इसे समझ न सका, किन्तु नये उत्साह से बैलो को ठोक-ठाककर और गाली-गलौज देकर हांकने लगा। प्राणपण से गाड़ी चल रही थी, भीतर देवदास छटपटा रहे थे। एकमात्र यही विचार चक्कर लगा रहा था कि भेट होगी या नही? पहुंच सकेगे या नही? दोपहर के समय गाड़ीवान ने बैलो को भूसी खाने को दी, स्वयं भी दाना पानी किया। फिर पूछा-‘बाबू, आप कुछ अन्न-जल नही करेगे?’

‘नही, बड़ी ह्रश्वयास लगी है, थोड़ा पानी दे सकते हो?’

उसने पास की पोखरी से पानी ला दिया। आज सन्ध्या के बाद बुखार के साथ देवदास की नाक की राह बूंद-बूंद खून गिरने लगा। उन्होने भर-जोर नाक को दबाया। फिर मालूम हुआ कि दांत के पास से खून बाहर आ रहा है। सांस लेने मे भी कष्ट होने लगा। हांफते-हांफते कहा-‘और कितनी दूर...?’

गाड़ीवान ने कहा-‘दो कोस और है। रात को दस बजे पहुंचेगे।’

देवदास ने बड़े कष्ट के साथ रास्ते की ओर देखकर कहा-भगवन!’

गाड़ीवान ने पूछा-‘बाबू, कैसी तबीयत है?

देवदास इस बात का जवाब नही दे सके। गाड़ी चलने लगी, पर दस बजे नही पहुंची। लगभग बारह बजे रात को गाड़ी हाथीपोता के जमीदार के मकान के सामने पीपल के पेड़ के नीचे आकर खड़ी हुई।

गाड़ीवान ने बुलाकर कहा-‘बाबू, नीचे उतरिये।’

कोई उत्तर नही मिला। तब उसने डरकर मुंह के पास दीया लाकर देखा, कहा-‘बाबू, क्या सो गये है?’

देवदास देख रहे थे, होठ हिलाकर कुछ कहा, किन्तु कोई शब्द नही हुआ। गाड़ीवान ने फिर बुलाया‘बाबू!’

देवदास ने हाथ उठाना चाहा, किन्तु उठा नही सके। केवल दो बूंद आंसू उनकी आंखो के कोण से बाहर ढुलक पड़े। गाड़ीवान ने तब अपनी बुद्धि के अनुसार बांसो को बांधकर एक पलंग बनाया, उसी पर बिस्तर बिछाकर बड़े कष्ट से देवदास को लाकर सुला दिया। बाहर एक मनुष्य भी दिखायी नही पड़ता था। जमीदार के घर मे सब लोग सो रहे थे। देवदास ने अपनी जेब से बड़े कष्ट से सौ रुपये का एक नोट बाहर निकाला। लालटेन की रोशनी मे गाड़ीवान ने देखा कि बाबू उसी की ओर देख रहे है, परन्तु कुछ कह नही सकते है। उसने अवस्था देखकर नोट लेकर चादर मे बांध लिया। शाल से देवदास का सारा शरीर ढंका था, सामने लालटेन जल रही थी और पास मे नया साथी गाड़ीवान था।

पौ फटी। सुबह के समय जमीदार के घर से लोग बाहर निकले। एक आश्चर्यमय दृश्य! पेड़ के नीचे एक आदमी मर रहा था। देखने से सद्‌कुल का जान पड़ता था। शरीर पर शाल, पांव मे चमकता हुआ जूता, हाथ मे अंगूठी पडी़ हुई थी। एक-एक करके बहुत-से लोग जमा हो गये। क्रम से भुवन बाबू के कान तक यह बात पहुंची, वे डॉक्टर को साथ लेकर स्वयं आये। देवदास ने सबकी ओर देखा; किन्तु उनका कंठ रूद्ध हो गया था-एक बात भी नही कह सके केवल आंखो से जल बहता रहा। गाड़ीवान जो कुछ जानता था, कह सुनाया, परन्तु उससे कुछ विशेष बाते नही मालूम हुई। डॉक्टर ने कहा-‘ऊर्ध्व श्वास चल रहा है, अब शीघ्र ही मृत्यु होगी।’

सबने कहा-‘आह!’

घर मे ऊपर बैठी हुई पार्वती ने यह दयनीय कहानी सुनकर कहा-‘आह!’

किसी एक आदमी ने तरस खाकर दो बूंद जल और तुलसी की पत्ती मुंह मे छोड़ दी। देवदास ने एक बार उसकी ओर करूण-दृष्टि से देखा, फिर आंखे मूंद ली। कुछ क्षण सांस चलती रही, फिर सर्वदा के लिए सब शान्त हो गया। अब कौन दाह-कर्म करेगा, कौन छुएगा, कौन जाति है आदि विविध प्रश्नो को लेकर तर्क-वितर्क होने लगा। भुवन बाबू के पास के पुलिस स्टेशन मे इसकी खबर दी।

इंसपेक्टर आकर जांच-पड़ताल करने लगे। ह्रश्वलीहा और फेफड़े के बढ़ने के कारण मृत्यु हुई है, नाक और मुख मे खून के दाग लगे है। जेब से दो पत्र निकले। एक तालसोनापुर के द्विजदास मुखोपाध्याय ने बम्बई के देवदास को लिखा था कि रुपये का इस समय प्रबन्ध नही हो सकता। और एक काशी से हरिमती देवी ने उक्त देवदास को लिखा था कि कैसे हो?

बाएं हाथ मे अंग्रेजी मे नाम का पहला अक्षर गुदा हुआ था। इन्सपेक्टर ने निश्चित करके कहा-‘यह मनुष्य देवदास है।’

हाथ मे नीलम की अंगूठी थी-दाम अन्दाजन डेढ़ सौ था। शरीर पर एक जोड़ा शाल था-दाम अन्दाजन दो सौ था। कोट, कमीज, धोती आदि सब लिखे गये। चौधरी और महेन्द्रनाथ दोनो ही वहां पर उपस्थित थे। तालसोनापुर का नाम सुनकर महेन्द्र ने कहा-‘छोटी मां के मायके के तो नही...!’

चौधरी जी ने तुरन्त बात काटकर कहा-‘वह क्या यहां पर शिनाख्त करने आवेगी?’

दारोगा साहब ने हंसकर कहा-‘कुछ पागल तो नही हो।’

ब्राह्मण का मृत-देह होने पर भी गांव के किसी ने स्पर्श करना स्वीकार नही किया, अतएव चांडाल आकर बांध ल गये। फिर किसी सूखे हुए पोखरे के किनारे आधे झुलसे हुए शरीर को फेक दिया, कौवे और गिद्ध उस पर आकर बैठ गये, सियार और कुत्ते परस्पर कलह मे प्रवृत हुए। तब भी जिस किसी ने सुना, कहा-‘आह!’ दास-दासी भी जहां-तहां भी उसकी चर्चा करने लगे-‘कोई बड़े आदमी थे! दो सौ रुपये का शाल, डेढ़ सौ रुपये की अंगूठी, सब दारोगा के पास जमा है; दो चिट्ठी थी वे भी उन्ही लोगो ने रख ली है।’

यह सब समाचार पार्वती के कान तक भी पहुंचे; किन्तु वह आजकल बड़ी अनमनी रहती है, किसी विषय पर विशेष ध्यान नही देती। अस्तु, इस व्यापार के विषय मे भी कुछ ठीक नही समझ सकी। पर जब सभी के मुख पर इस चर्चा को पाया तो पार्वती ने भी इसके विषय मे कुछ विशेष जानने की इच्छा से एक दासी से पूछा-‘क्या हुआ है? कौन मरा है?’

दासी ने कहा-‘आह, यह कोई नही जानता मां! पिछले जन्म का कोई यहां की मिट्टी का धरता था, वही यहां केवल मरने आया था। कल सारी रात यहीं पर पड़ा रहा। आज सुबह मर गया।’

पार्वती ने एक लम्बी सांस लेकर कहा-‘क्या उसके बारे मे कोई कुछ नही जानता?’

दासी ने कहा-‘महेन्द्र बाबू जानते होगे, मै कुछ नही जानती।’

महेन्द्र की बुलाहट हुई। उन्होने कहा-‘तुम्हारे देश के देवदास मुखोपाध्याय थे।’

पार्वती महेन्द्र के अत्यन्त निकट सरक आयी, एक तीव्र दृष्टि से देखकर पूछा-‘क्या देव दादा? कैसे जाना?’

‘जेब मे दो चिट्ठियां थी। एक द्विजदास की...’

पार्वती ने बाधा देकर कहा-‘हां, उनके बड़े भाई की।’

‘और एक काशी से हरिमती देवी ने लिखा था...’

‘हां, वे मां है।’

‘हाथ पर नाम गुदा था...’

पार्वती ने कहा-‘हां, जब पहले-पहल कलकत्ता गये थे तो लिखाया था।’

‘एक नीलम की अंगूठी थी...’

‘पिता के समय मे उसे बड़े चाचा ने दिया...मै जाऊंगी...’

कहते-कहते पार्वती दौड़ पड़ी। महेन्द्र ने हत्बुद्धि होकर कहा-‘ओ मां, कहां जाओगी?’

‘देवदास के पास।’

‘वे अब नही है, डोम ले गये।’

‘अरे, बाप रे बाप!’-कहकर रोती-रोती पार्वती दौड़ी।

महेन्द्र ने दौड़कर सामने आकर बाधा दी। कहा-‘क्या पागल हुई हो, मां! कहां जाओगी?’

पार्वती ने महेन्द्र की ओर एक तीव्र दृष्टि से देखकर कहा-‘महेन्द्र, क्या मुझे सचमुच पागल समझ रखा है? रास्ता छोड़ो।’

उसकी ओर देखकर महेन्द्र ने रास्ता छोड़ दिया, चुपचाप पीछे-पीछे चलने लगा। बाहर तब भी नायब-गुमाश्ता आदि काम कर रहे थे। वे लोग देखने लगे। चौधरी जी ने चश्मा लगाकर पूछा-‘कौन जा रहा है?’

महेन्द्र ने कहा-‘छोटी मां।’

‘यह क्यो? कहां जाती है?’

महेन्द्र ने कहा-‘देवदास को देखने।’

भुवन चौधरी ने चिल्लाकर कहा-‘तुम सभी की बुद्धि मारी गयी है! पकड़ो-पकड़ो, पकड़कर उसे ले आओ। सब पागल हो गये! ओ महेन्द्र, जल्दी करो, दौड़ो!’

इसके बाद नौकर-नौकरानियो ने मिलकर पार्वती को पकड़ा और उसकी मूर्च्छित देह को भीतर ले गये। दूसरे दिन उसकी मूर्च्छा टूटी, पर उसने कोई बात नही कही, केवल एक दासी को बुलाकर पूछा‘रात को वे आते थे या नही? सारी रात...!’

इसके बाद पार्वती चुप हो रही।

अब इतने दिनो बाद पार्वती का क्या हुआ, वह कैसी है, यह हम नही जानते; जानने की इच्छा भी नही होती। केवल देवदास के लिए हृदय बहुत क्षुब्ध रहता है। आप लोगो मे से भी जो कहानी को पढ़ेगे, सम्भवतः मेरे ही समान क्षुब्ध होगे। फिर भी यदि देवदास के समान हत्‌भाग्य, असंयमी और पापिष्ठ के साथ किसी का परिचय हो तो वह उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करे, प्रार्थना करे कि और चाहे जो हो, पर उनकी जैसी मृत्यु किसी की न हो! मृत्यु होने मे कोई हानि नही है, किन्तु उस समय एक स्नेहमयी हाथ का स्पर्श सिर पर अवश्य रहे, एक करूणार्द्र मुख को देखते-देखते इस जीवन का अन्त हो। जिससे मरने के समय किसी की आंखो का दो बूंद जल देखकर वह शान्ति से मर सके।

(समाप्त)



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